Tuesday, November 23, 2010

गुज़ारिश

कल मैंने संजय लीला भंसाली की नयी फिल्म "गुज़ारिश" देखी. स्वेच्छा-मृत्यु जैसे विषय पर फिल्म बनाना सिर्फ़ एक कहानी नहीं है, कम से कम मेरे लिए तो बिल्कुल ही नहीं. मैं नहीं जानता था की मेरे जैसी सोच कोई और भी रखता होगा.
जब से भारत में इस विषय को क़ानूनी स्वीकृति देने पर बहस चल रही है, मैं अकेले बैठकर कई बार सोचता हूँ कि इसे डॉक्टरों के सिफारिशनामे के साथ स्वीकृति देने में बुराई क्या है? इस प्रस्ताव में मैं स्वयं ही दूसरा संशोधन सुझाता हूँ कि स्वेच्छा-मृत्यु माँगने वाले को कम से कम तीन अधिकारिक हस्पतालों से अलग-अलग सिफारिशें देनी होंगीं मगर इस विधेयक को स्वीकृति मिलनी ही चाहिए. इस प्रस्ताव को स्वीकृति देने के लिए जितनी भी ज़रूरी प्रमाण पत्रों की ज़रूरत हों उन्हें इंगित करना अनिवार्य बना कर भी इस बिल को पास करना ही चाहिए.
मेरे मान में कई बार इस तरह के विचार आते हैं कि यदि कभी मैं खुद किसी ऐसे हादसे का शिकार हो जाऊं, जिसके फलस्वरूप यदि मुझे बिस्तर पर दूसरों की सेवा और मर्ज़ी पर जीवन जीना पड़े तो मैं ऐसे जीवन से अच्छी मौत को मानता हूँ. ऐसे विचार जब भी आते हैं तो मेरी ईश्वर से बस इतनी ही प्रार्थना रहती है की हे ईश्वर! बस इतनी कृपा करना की मुझे किसी की सेवा की ज़रूरत ना पड़े, मैं अपने पाँवों पर ही चलता हुआ ही इस संसार से विदा लूँ.
मेरे मान में कई बार इच्छा भी होती है की मैं दोनों बच्चों और मधु को बिठा कर इस बात की चर्चा करूँ की यदि कभी मेरे साथ ऐसा कुछ हो जाए, तो वो बस इतना ही करें जिससे मेरी तकलीफ़ कम से कम हो पर मृत्युजल्द से जल्द आ जाय. ला-इलाज बीमारी पर व्यर्थ पैसे खर्च करने में मुझे कोई बुद्धिमानी नहीं दिखती है. क्या वो पैसों से मुझे अमरबना सकते हैं? क्या वो अपनी इच्छा से मेरी मृत्यु को जितना चाहें टाल सकते हैं? यदि हन तो वो जो चाहें वो करें, पर यदि उत्तर" नहीं" में हो तो स्वेच्छा-मृत्यु मेरी हार्दिक तमन्ना होगी.
पर मैं जानता हूँ कि वो लोग इस बात पर कभी भी बात करना नहीं चाहेंगे पर मानसिक रूप से बहुत कमज़ोर पड़ जाएँगे. मुझमें भी इतनी हिम्मत नहीं है की मैं उनके उदास चेहरे देख सकूँगा.
मैं तो इतनी भी हिम्मत नहीं जुटा सकता हूँ की उनको इस ब्लॉग के बारे में भी बता सकूँ, पर सोचता हून की कभी किसी बहाने इस ब्लॉग के बारे में उन्हें बताऊँगा ज़रूर ताकि उनको मेरी यह मान की बात पता चल जाए.

Sunday, October 24, 2010

भरत और बहू रात के दो बजे घर में आये और बहु ने सिर्फ नियम का प्रणाम किया और कमरे में चली गयी. फिर भी हमने उसे ज़बरदस्ती खाना खिलाया पर उसे एक शब्द भी नहीं कहा. दूसरे दिन  उसके माता-पिता को घर बुलाया  और तब पहली बार उससे बात शुरू की. हम सबों ने उससे लाख पूछा की ऐसा क्या हुआ था कि उसे आत्महत्या करने गयी थी. उसने बस इतना कहा कि Heat of the moment में उसे पता नहीं कि वह क्या कर रही है. करीब सारा दिन उससे बात करने के बाद भी हम यह नहीं समझ पाए कि आखिर क्या बात थी कि उसने ऐसा किया. फिर मैंने सोचा कि हो सकता है कि चूंकि भारत अपनी ऑफिस के काम कि वजह से होनेयमून पर नहीं गया था इस वजह से अकेलेपन कि वजह से उसे frustration हो गयी होगी. मैंने तुरंत भरत को ऑफिस से छुट्टी लेने को कहा और उन दोनों को ४-५ दिनों के लिए दार्जिलिंग भेजा. उन दोनों को पूरा एकांत मिले इस लिए मैंने उन्हें अपनी गाड़ी में खुद चला कर जाने को कहा वरना उन दोनों के बीच एक ड्राईवर होता.

करीब ४-५ दिनों के बाद दोनों बड़े ही अच्छे मूड में देर शाम को घर लौटे. उसके दूसरे दिन सवेरे ६ बजे भरत कि कोलकाता से प्लेन कहा कि था इसलिए उसे उसी रात गाडी से एअरपोर्ट के लिए रवाना होना था. मैंने बहु को भी साथ ले लिया ताकि उसे भरत के साथ और समय मिल जाए. हम सारी रात drive कर के गए थे आर मैंने सोचा कि मेरी माँ कि तबियत भी खराब चल रही थी इसलिए मैं बहू को माँ से मिलाने के लिए ले गया. रास्ते से मैंने 10-12 किलो आम खरीद लिए और माँ के सामने यह कह कर दिया कि वह आम बहु के पिताजी ने भेजे थे.

बहू को बाहर खाने का बेहद शौक था इसलिए मैंने उसे कलकत्ते का नामी इडली-डोसा खिलाने ले गया. कोई कह नहीं सकता था कि एक हफ्ते पहले ही यही लड़की आत्महत्या करने गयी थी. हम नाश्ता कर ही रहे थे कि बहु कि माँ का फोने आ गया कि हम लौटते समय रास्ते में ही उसे उसके पीहर में छोड़ दें. मुझे यह सोच कर बहुत गुस्सा भी आया कि क्या बहु किसी जंगल में थी? फिर भी आसनसोल लौट कर मैंने उसे खाना खिला कर खुद गाडी में उसके पीहर में छोड़ दिया. कलकत्ते में नाश्ता करने के बाद हम कुछ और रिश्तेदारों से मिलने गए और सबों ने उसके बाहर खाने कि इच्छा को पूरा किया. बहु बहुत खुश भी थी.

मुझे इस बात का हमेशा दुःख रहता ठाट कि बहु और हम एक ही शहर में ही रहते थे पर उसकी माँ उसे हमलोगों के पास एक दिन भी नहीं छोडती थी और न ही कभी बहु हमारे पास रहने कि इच्छा जताती थी. खैर !!! मधु मुझे हमेशा शांत कर देती थी और मैं मन मसोस कर रह जाता था.

इसी तरह दिन बीतते रहे. बहू को मैं अपने ससुराल कि एक शादी में भी ले कर गया ताकि वह परिवार में सबों को पहचान जाए. वहां सबों ने उसे बहुत प्यार दिया. बहू ने भी बहुत काम किया और सबों ने उसकी बहुत तारीफ भी की.

बहू C. A. के अंतिम साल में थी और ४ महीनों के बाद उसकी फ़ाइनल परीक्षा थी जिसकी उसे तयारी करनी थी. मेरी बहुत तमन्ना थी की बहू हमारे घर में ही रह कर पढ़ाई करे पर उसने अपने पीहर में रह कर ही पढ़ने की इच्छा जाहिर की to मधु ने एक बार फिर मुझे समझा बुझा कर शांत कर दिया. मैंने बहू को उसके पीहर ले जा कर छोड़ दिया. मैंने बहू को समझाया कि वह अपने पिताजी से एक पैसा भी पढ़ाई के लिए न ले. मैंने उसे यह भी कहा कि वह कभी कभी मेरे घर अ जाया करे पर पूरे ४ महीनो के दौरान वह शायद चार दिन भी नहीं आयी.

इन ४-५ महीनों में जब भी २-३ बार हमने बहु को अपने घर बुलाया, उसके आने से पहले ही उसकी माँ का फ़ोन आ जाता था कि हम उसे रात को ही वापस घर भेज दें. मन में बड़ी तकलीफ होती थी कि बहु के एक ही शहर में होते हुए भी हमें उसको अपने घर में गेस्ट कि तरह बुलाना पड़ता था और उसकी माँ उसे जिस तरह से वापस बुलाती थी मुझे ऐसा लगता था जैसे हम किसी जंगल में रह रहे थे. मधु ने हमेशा मुझे किसी तरह से चुप रहने पर मजबूर कर दिया और हम दोनों ही अकेले में इस बात पर दुखी होते थे कि हमारी बहु न तो कभी हमें फोन करती थी और न ही कभी हमारे पास आती थी.

इस बीच कुछ तीज त्यौहार भी आये और बहु को घर भी बुलाया या आज सोचते हैं तो ऐसा लगता है जैसे उसे घर आना पड़ा पर जो बातें उसकी माँ को उसे समझाना चाहिए था वह मधु उसे समझाती थी. कभी भी उसे बहु कि तरह नहीं देखा पर उस समय हम नहीं जानते थे कि उसके मन में क्या चल रहा था.

इस बीच एक दिन अचानक भरत का फ़ोन मेरे पास आया और उसने मुझे कहा कि उसने बहू की भुज के लिए टिकट बना कर मुझे मेल कर दी है और में बहु को दूसरे दिन ही आसनसोल से रवाना कर दूं. मैं कुछ भी समझ नहीं पाया और पूछने पर पता चला कि बहु भरत को रोज फोन पर किसी भी बात पर घंटों झगडती रहती थी. उस दिन भी उसने भरत को फोन करके बहुत लड़ाई कि और कहा था " मैं पीहर में रह कर पढ़ाई नहीं करूँगी. तुम क्या जानो मुझे यहाँ क्या-क्या सुनना पड़ता है"

  तंग आकर उसने बहू की टिकट बना कर मुझे मेल कर दी थी. मैने सोच की शायद बहू के माँ-बाप इस विषय पर कुछ जानते होंगे, अतः मैने उनको फोन कर के पूछा तो वे भी आश्चर्या करने लगे. मैने कहा की मैं उनसे बात करना चाहता हूँ तो वे तुरंत बोले की हम सपना को ले कर आपके घर आते हैं. वो लोग आए. हमने सपना से बहुत पूछा पर उसने कोई कारण नहीं बताया. हर समय कुछ ना कुछ Irrelevent बात करती रही हम जिसका सिर-पैर समझ नहीं पा रहे थे.
उसकी बातों से समझ में आ रहा था कि जो बात उसको पसंद ना हो उसे वो एक इश्यू बना लेती थी और फिर उसे किसी भी हद तक खींच सकती थी. दूसरी बात जो समझ में आई वो यह कि उसके मन में सिर्फ़ नेगेटिव विचार ही थे. मेरे मन में शक होने लगा था कि उसके माँ-बाप उसे कुछ नहीं समझाते थे. इसका कारण यह था की उस दिन अपने माँ-बाप के सामने मधु से (अपनी सास से) इतनी बदतमीज़ी से बात की कि हमने सोचा कि अब उसकी माँ तो अपनी बेटी को अवश्य टोकेगी पर दोनो ही ऐसे चुप बैठे रहे जैसे उसने कुछ कहा ही नहीं हो. आख़िर मधु को बोलना ही पड़ा - "सपना! बड़ों से बात करने का एक तरीका होता है. तुम अपनी सास से बात कर रही हो और इस तरह आँखें निकाल कर नहीं बल्कि नज़रें नीची कर के बात करो. इस पर भी उसके माँ=बाप ने बस इतना ही कहा की ऐसे बात नहीं करना चाहिए.
मैं ताड़ गया था कि मामले की जड़ में उसकी माँ के अलावा और कोई नहीं था. पर मैं कुछ बोल नहीं सकता था. मैने समधी जी को मशवरा दिया कि वो सपना को मेरे घर में छोड़ दें तभी उसे ससुराल में रहने का मौका भी मिलेगा और वो हमारे घर को अपना घर समझने लगेगी. पर उसकी माँ ने तुरंत कहा की नहीं वो उसे अपने घर ले जाएगी और सपना को समझाएगी. मैं समझ रहा था कि जिसने हमारे सामने ही अपनी बेटी के व्यवहार पर उसे कुछ नहीं कहा वो घर में कितना समझाएँगे. पर मधु ने एक बार फिर मुझे रोक दिया.
इसी तरह दिन बीतते रहे. हमारे साथ किसी तरह का संपर्क ना रखते हुए भी सपना को हमसे शिकायतें थी और हम कुछ समझ नहीं पा रहे थे.
मैने सपना को स्पष्ट कह रखा था कि उसे अपनी पढ़ायन के लिए अपने पिताजी से एक पैसा भी नहीं माँगना है. और मैं इस बात का हमेशा ध्यान रखता था जब भी सपना से सामना होता था मैं उससे हमेशा पूछ लेता था कि उसके पास कितने पैसे हैं, और उसके ना माँगने पर भी मैं कम से कम हज़ार रुपये हाथ में दे देता था. मैं उसके फोन के बैलेंस का भी ध्यान रखता था और उसे हमेशा भर कर बी रखता था. एक बार तो यहाँ तक हुआ की मैने जब उससे पूचछा की तुम कितने.
का रीचार्ज करती हो तो उसने कहा की दस-दस रुपये का. मैं तुरंत उसे ले कर गया और उसके फ़ोन पेर तीन सौ रुपयो का रीचार्ज करवाया और उसे सख़्त हिदायत भी दी कि उसके फ़ोन पर कम से कम बैलेंस तीन सौ रुपयों का होना चाहिए

Tuesday, October 12, 2010

मुझे अपने परिवार में एक बेटी कि कमी हमेशा से ही खलती रही है. इश्वर ने मुझे अपनी बेटी नहीं दी पर उसने मुझे ऐसे दोस्त दिए थे जिनकी बेटियों ने कभी भी मुझे बेटी न होने का दुःख अनुभव नहीं हिने दिया. फिर यह कमी खलने लगी कि मेरिऊ वह बेटियां हमेशा मेरे साथ नहीं रहतीं थीं. खैर ....

जैसे जैसे मेरे बाते बड़े होने लगे और उनकी शादी कि बात चलाने लगा, मेरे मन में एक दूसरी आशा ने जनम लेना शुरू कर दिया कि मैं 'बहू' में "बेटी" देखूंगा और मेरी अधूरी इच्छा पूरी हो जाएगी. मन ने खुद को समझाया कि अपनी बेटी तो किसी दिन दूसरे घर चली जाती, पर यह बेटी तो हमेशा के लिए मेरे ही घर में ही रहेगी.

बड़े शौक से मैंने भरत कि शादी की, मैंने सिर्फ दो ही चीजें देखी -१) पढ़ी-लिखी लड़की हीनी चाहिए, और २) लड़की बड़े परिवार से होनी चाहिए. लोगों ने यहाँ तक की लड़कियों के पिताओं ने भी मुझसे रुपये-पैसों के बारे में पूछा, पर मैंने सिर्फ एक ही बात कही थी कि वह सिर्फ बरात की अच्छी खातिर कर दें और कुछ ना भी करें तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है. मेरी नज़र में विवाह में पैसों की बात करने से घटिया कोई और बात हो ही नहीं सकती है. जिस किसी ने भी मुझे जब कोई सम्बन्ध बताया और पैसों की बात की तो मेरा हमेशा यही कहना था कि मुझे यदि अपनी बेटी देनी होती तो मैं लड़के वालों के पैसों और सामर्थ्य कि ओर देखता, पर जब मुझे लड़की अपने घर में लानी है तो फिर उसके घर के पैसों को देखने की मेरे लिए कोई ज़रुरत नहीं थी.

भाग्यवश मेरे एक मित्र ने मुझे अपने एक और मित्र की लड़की के बारे में बताया. मैं लड़की के पिताजी को कई सालों से जानता था और मुझे वह इंसान बहुत ज्यादा पसंद भी था क्योंकि वह मन से बेहद सीधा और साफ़ था. उन्हें देख कर मुझे हमेशा अपने ससुर जी की याद आती थी क्योंकि न सिर्फ उनका स्वभाव बल्कि उनकी सूरत भी मेरे ससुर जी इ ८०% मेल खाती थी. वोह आसनसोल के एक बहुत बड़े और इज्ज़तदार परिवार के थे पर मैं उनके अलावा उनके अपने परिवार के लोगों को नहीं जानता था, जबकि उनके बाकी भाइयों के परिवारों को मैं अच्छी तरह से जानता था और करीब-करीब पूरा आसनसोल भी मुझे और मेरे परिवार को अच्छी तरह से जानता है.

मेरे मित्र ने मुझे अपने घर में बुला कर लड़की दिखाई और यह भी बताया की लड़की के पिता की माली हालत कुछ अच्छी नहीं थी और वह बस शादी ही कर सकते थे. जब बात बढ़ी तो मैंने उनसे खुल कर बोलने के लिए कहा कि वह मुझे अपना बजट बता दें और मैं इस बात का पूरा-पूरा ख़याल रखूंगा कि उनके बजट से एक पैसा भी अधिक खर्च न हो. उनहोंने मुझे बताया कि वह शादी पर कुल ५लाख खर्च कर सकते थे. मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि मैं किसी के सामने उनकी इज्ज़त को नीचा नहीं होने दूंगा और उनको भी यही कहा कि वह शादी पर जो भी खर्च करें पहले मुझसे पूछ लें ताकि कोई भी बेकार या गैर जरूरी खर्च न हो.

उनहोंने शादी में बरात कि अच्छी खातिर कि और मैंने उनको कहा कि वह जो भी सामान अपनी बेटी को देना चाहते हैं, मैं उसे किसी को दिखाना नहीं चाहता अतः वह साड़ी चीजें पैक कर के मेरे घर में भेज दें जो कि उसी तरह से भुज चलीं जायेंगीं, और उन्होंने किया भी वैसा ही.

इतना कुछ करने के बाद शादी के ५ दिनों के बाद भारत और "बहू" आसनसोल से रवाना हुए. चूंकि बहू कभी भी प्लेन में नहीं बैठी थी, मैंने उसे पहली ख़ुशी देने के लिए दोनों को प्लेन से भेजा. उनके जाने के दस दिनों के बाद हम मियां-बीबी बहु का घर बसाने के लिए आसनसोल से भुज आ गए.

हमारे आने के दूसरे ही दिन सुबह-सवेरे मेरी पत्नी - 'मधु' ने मुझे बताया कि शायद बहू के मन में "अपना-पराया' की भावना है क्योंकि, स्नानघर में जो अच्छी साबुन कल थी उसे बदल कर एक सस्ती साबुन रख दी गयी थी. मैंने मधु को समझा-बुझा कर शांत कर दिया.

मैं भुज में ५ दिन रह कर अपने काम पर लौट गया और मधु पीछे bघर बसाने बहू को गणगौर की पूजा करवाने और उसका घर बसाने के उद्देश्य से भुज में ही रह गयी. मधु सिर्फ १५ दिनों के लिए ही रहने आई थी पर बहू के व्यवहार ने यह साबित कर दिया कि उसे सास के साथ नहीं रहना है. मधु को अपना ही घर काटने लगा और वह गर्मी का बहाना बना कर परीक्षित के पास मुंबई चली गयी. कुछ दिनों के बाद भरत और बहू भी मुंबई आये और वहाँ पर बहू ने भरत को कह ही दिया कि वह आज "आर या पार" कि बात करेगी. मधु ने बताया कि भरत अपनी मम्मी और पत्नी को ले कर करीब ३ घंटे तक बात कि और आखिर अपनी पत्नी कि बातें सुन कर झुंझला कर कहना पड़ा कि वह दोनों आपस में बात करना बंद कर दें. इतनी बातें हिने के बाद भरत और बहू शाम को घर के कम्पाउंड में अकेले घूमने निकल गए और मधु हर में ही रह गयी. उसी समय पहली बार बहू ने भरत के सामने सारे गहने खोल कर पटक दिए और आती हुई बस के नीचे मरने के लिए अड़क कि ओर भागी.आस-पास के लोगों ने किसी तरह उसे पकड़ कर रोक लिया. यह बात भरत ने घर में आ कर किसी को नहीं बतायी और पूर्व नियोजित कार्यकर्म के अनुसार मधु और बहू मुंबई से आसनसोल के लिए ट्रेन से रवाना हो गए....... क्रमशः:  

Sunday, September 26, 2010

Life's Realities

मन में हमेशा से ही इच्छा थी कि मन की बातों को लिखा जाय पर अपने ही अन्दर एक अंतर्द्वंद चल रहा था - लिख सकूँगा या नहीं, तभी दिमाग ने पूछा - किसके लिए लिखना है, खुद के लिए या दूसरों के लिए? मन ने कहा "खुद के लिए" तो फिर कभी तो कहीं से शुरुआत करनी पड़ेगी? तो आज ही क्यों नहीं?

रोज़ अपने साथ और आस-पास कितना कुछ घटता रहता है जिनमें कुछ बातें / प्रसंग मन पर उस क्षण में गहरा प्रभाव छोड़ देते हैं जो शायद मेरे आस-पास के लोग या तो समझना ही नहीं चाहते, या फिर वह बातें उनको बड़ी Normal लगती होंगी.
अब लगता है कि शायद मैं अपने आपसे बातें कर सकूंगा और शायद कुछ "हम-मिजाज़" दोस्त भी मिल जाएँ जो अपनी प्रतिक्रिया भी दे दें.
शुरुआत करने के लिए आज इतना ही काफी है.